Tuesday, May 27, 2008

अस्तित्व

जब ख़ुद को ख़ुद की धड़कन सुनाई ना दे ,
दूर दूर तक कोई मंजिल ना दिखाई दे ,
शोर मे गुम हो जाए अपनी ही आवाज़ ,
सुलगती रहे अस्तित्व की चिंता ,
तब समझो खत्म ये जिंदगानी है ।
पर
वक्त से आगे जाने की, मैंने मन मे ठानी है।
मेरा चेहरा दर्पण है यारों, ख़ुद को मुझमे देखोगे तुम।
मेरी भी तुम जैसी ही सूनी जिंदगानी है।
ये सूनापन दूर भगाने की, ख्वाहिश अब मेरे मन मे है
फर्क नहीं पड़ता काँटों से, काँटों की अदा पुरानी है।
इन काँटों में अपनी राहें, मुझको आज बनानी है।
है सफर ये मेरा तन्हा पर, तन्हाई दूर भागनी है।
कैसे कदम हटा लूँ पीछे, राहें बेशक अनजानी है।

1 comment:

शोभा said...

बहुत सुन्दर। लिखते रहें।